जातीय जनगणना की रिपोर्ट के आधार पर विकास योजनाओं में देनी होगी हिस्सेदारी
अरुण कुमार पाण्डेय 
12.70 करोड़ की आबादी वाले बिहार में पहली बार हो रही जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट सार्वजानिक होने पर इसका व्यापक प्रभाव देखने को मिलेगा। भाजपा की हिन्दूवादी राजनीति की काट में जातीय जनगणना के फलाफल का  इस्तेमाल होगा। जातीय गोलबंदी के बूते राजद,जदयू जैसी पार्टियां भाजपा को चुनावी राजनीति में कमजोर करने का भरसक प्रयास करेंगी।
आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को  विकास योजनाओं में  हिस्सेदारी देने की ईमानदार पहल के साथ राजनीतिक भागीदारी की भी मांग पूरी करनी होगी।
बिहार के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में जातीयता का गहरा प्रभाव है।बिहार में ओबीसी एक बड़ा वोट बैंक है। माना जाता है कि बिहार में तकरीबन 52 फीसदी आबादी ओबीसी की है। यहां पिछडे-अति पिछड़े का 27% आरक्षण है।जाति के ही आधार पर आरक्षण का मौजूदा 50 % का कोटा बढाने की मांग के साथ आर्थिक रूप से पिछड़ी जाति के विकास हैतु विशेष योजना बनाने की मांग होगी। जाति की आबादी के हिसाब से बजट के साथ राजनीतिक हिस्सेदारी की भी मांग होगी। 
राज्य सरकार ने अभी 204 जातियों की पहचान के साथ नौकरियों 50% आरक्षण की व्यवस्था कर रखी है। 113 अति पिछड़े,30 पिछड़े,सामान्य वर्ग की 7, अनुसूचित जाति  और अनुसूचित जनजाति में 32-32 जाति सूचीबद्ध हैं।
500 करोड़ रुपए के खर्च पर दो चरणों में जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट पांच महीने बाद जून में आने की उम्मीद की गयी है 21 जनवरी तक  2.58 करोड घर-मकानों की  संख्या एव मालिकों का विवरण तैयार होगा।अप्रैल-मई में प्रत्येक घर-मकान के परिवार की जाति-पेशा  की विवरणी तैयार होगी। इससे यह जानकारी मिलेगी कि  जाति विशेष के लोगों की आर्थिक दशा कैसी है?
दूसरे चरण में जातीय और आर्थिक जनगणना होगी।दूसरे चरण में जाति और आर्थिक जनगणना का काम होगा। इसमें लोगों के शिक्षा का स्तर, नौकरी (प्राइवेट, सरकारी, गजटेड, नॉन-गजटेड आदि), गाड़ी (कैटगरी), मोबाइल, किस काम में दक्षता है, आय के अन्य साधन, परिवार में कितने कमाने वाले सदस्य हैं, एक व्यक्ति पर कितने आश्रित हैं, मूल जाति, उप जाति, उप की उपजाति, गांव में जातियों की संख्या, जाति प्रमाण पत्र से जुड़े सवाल पूछे जाएंगे। 

जातीय और आर्थिक जनगणना कराने की पूरी  जिम्मेदारी बिहार के सामान्य प्रशासन विभाग को दी गई है। 
जिला स्तर पर डीएम इसके नोडल पदाधिकारी नियुक्त किए गए हैं। 
जातीय गणना के लिए 500 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है। यह बढ़ भी सकता है। 

अंग्रेजी हुकूमत में 1931 में जातीय जनगणना हुई थी। तब पाकिस्तान भी भारत के साथ था। आजादी के बाद पहली बार देश में 1951 में जनगणना हुई थी। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी और धर्म के आधार पर जनगणना होती रही है। विशेष रूप में सरकारी नौकरियों में जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था लागू होने से पिछडे वर्ग की जातियों की भी गणना की मांग लंबे समय से होती रही है। 2011 में आबादी के साध जातीय जनगणना भी हुई थी पर जातीय गणना की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गयी।
प्रत्येक 10 वर्षों पर 2021 में होने वाली जनगणना की तारीख 5वीं बार बढ़ा दी गई है। ऑफिस ऑफ रजिस्ट्रार एंड सेंसस ने सभी राज्यों को पत्र लिखकर 30 जून 2023 तक प्रशासनिक सीमाएं फ्रीज करने के लिए कहा है। एक बार सीमाएं फ्रीज होने के 3 महीने बाद ही जनगणना शुरू हो सकती है। यानी अक्टूबर में जनगणना की  प्रक्रिया फिर शुरु की जा सकती है इसके पूरा होने में 11 महीने लग सकते हैं। तब 2024 से पहले जनगणना हो पाना होना मुश्किल है। कोरोना के कारण स्थगित हो गयी थी। अब जब अगले वर्ष मार्च-अप्रैल में अवश्यंभावी लोकसभा चुनाव के पहले जनगणना- 2021 शायद ही हो पायेगी। 
बिहार में जातीय जनगणना भी आरक्षण की तरह राजनीतिक दलों के लिए हथियार है यही कारण है कि इसका भी श्रेय लेने की होड शुरु हो गयी है। राजग के सत्ता में रहते राजद ने जातीय जनगणना की जोरशोर से मांग करने साथ  सरकार पर दबाव बनाया था।नीतीश कुमार ने इसका समर्थन कर राजद को श्रेय लेने से रोकने की भरसक कोशिश की थी ।तब भाजपा पशोपेश में थी । सन खुलकर विरोध कर रही और बढचढ कर समर्थन। विधानसभा में जातीय जनगणना के समर्थन मे प्स्ताव का साथ देने के साथ सर्वदलीय शिष्टमंडल में शामिल हो पीएम नरेन्द्र मोदी से मांग पत्र देने  मे भी साथ रही। लोकसभा के मार्च-अप्रैल 2024 में होने वाले चुनाव और बिहार विधानसभा का अक्टूबर-नवम्बर 2025 में होने वाले चुनाव में जातीय जनगणा की रिपोर्ट का रंग दिखना स्वभाविक है।आबादी के आधार पर हक-हिस्सेदारी चुनावी  मुद्दा बनेगा। 





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