क्या लोकसभा चुनाव के पहले कामन शिविल कोड लागू होगा?
नई दिल्‍ली,15 जून: कॉमन सिविल कोड यानी यूसीसी भारतीय जनता पार्टी  के मेनिफेस्‍टो का हिस्‍सा रहा है। बीजेपी अपने मेनिफेस्‍टो में शामिल ज्‍यादातर बड़े वादों को पूरा कर चुकी है। इनमें अयोध्‍या में राम मंदिर निर्माण शुरू करना और कश्‍मीर में अनुच्छेद 377 हटाने जैसे मुद्दे शामिल हैं।  यूसीसी ऐसा एक बड़ा मुद्दा है जिसे केंद्र की बीजेपी सरकार लागू नहीं कर पाई है। यूसीसी के तहत ऐसा कानून लागू करने का प्रस्ताव है जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होगा। फिर चाहे उनका धर्म, लिंग, जाति कुछ भी हो। 
भारत के लॉ कमीशन की ओर से जारी पब्लिक नोटिस में यूसीसी पर लोगों से राय मांगी गई है। इससे उन अटकलों को बल मिला है कि सरकार अगले लोकसभा चुनाव से पहले यूसीसी को लागू कर देगी।
अगले वर्ष होनेवाले लोकसभा चुनाव के पहले  इसे लोकसभा के आगामी सत्र में लागू किया जा सकता है। 
समान नागरिक संहिता  1998 के चुनावों से बीजेपी के घोषणापत्र का हिस्सा रहा है। नवंबर 2019 में नारायण लाल पंचारिया ने इसे पेश करने के लिए संसद में विधेयक पेश किया था। लेकिन, विपक्ष के विरोध के कारण इसे वापस ले लिया गया था। किरोड़ी लाल मीणा मार्च 2020 में फिर बिल लेकर आए। लेकिन, इसे संसद में पेश नहीं किया गया। विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों में समानता की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी याचिकाएं दायर की गई हैं। 2018 के परामर्श पत्र ने स्वीकार किया था कि भारत में विभिन्न परिवार कानून व्यवस्थाओं के भीतर कुछ प्रथाएं महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करती हैं। उन्हें देखने की जरूरत है।


2018 में लॉ कमिशन ने यूनिफॉर्म सिविल कोड पर दी थी रिपोर्ट

UCC क्‍यों है जरूरी?
1985 में शाह बानो मामले में तलाक में मुस्लिम महिला के अधिकारों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद को एक सामान नागरिक संहिता की रूपरेखा को रेखांकित करना चाहिए। यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट्रीय सद्भाव और समानता की सुविधा देता है।


2015 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ईसाई कानून के तहत ईसाई महिलाओं को अपने बच्चों के प्राकृतिक अभिभावक के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है। भले ही हिंदू अविवाहित महिलाएं अपने बच्चे की प्राकृतिक अभिभाव हों। कोर्ट ने माना था कि समान नागरिक संहिता एक अनसुलझी संवैधानिक अपेक्षा बनी हुई है।



ऐसे कई मामले हैं जहां धार्मिक हस्‍तक्षेप है। इनमें विवाह, तलाक, गोद लेने, विरासत और उत्तराधिकार जैसे मामले शामिल हैं। 31 अगस्त, 2018 को एक परामर्श पत्र जारी हुआ था। इसमें भारत के तत्कालीन 21वें विधि आयोग ने कहा था कि यह ध्यान रखना होगा कि सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं हो कि एकरूपता की कोशिश ही खतरे का कारण बन जाए। यूसीसी का मतलब प्रभावी रूप से विवाह, तलाक, गोद लेने, संरक्षण, उत्तराधिकार, विरासत इत्‍यादि से जुड़े कानूनों को व्‍यवस्थित करना होगा। इसमें देशभर में संस्कृति, धर्म और परंपराओं को देखना होगा।


आजादी के बाद से कई बार यूसीसी और व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की मांग उठाई जाती रही है। हालांकि, समान नागरिक संहिता को लागू करने में कई चुनौतियां हैं। इसमें धार्मिक समूहों का विरोध, राजनीतिक सहमति की कमी और कानूनों के भीतर मतभेद शामिल हैं। कई जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित हैं। इनमें महिलाओं की सुरक्षा के साथ तलाक, गार्जनशिप और उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों के रेगुलेशन की मांग की जा रही है। मुस्लिम महिलाओं की ओर से दायर कई याचिकाओं में इस्लामिक कानून में भेदभाव को उजागर करती हैं। इनमें तत्काल तलाक (तलाक-ए-बेन), अनुबंध विवाह (मुता), और दूसरे पुरुष से अल्पकालिक विवाह (निकाह हलाला) जैसी भेदभावपूर्ण प्रथाएं शामिल हैं। सिखों के विवाह कानून 1909 के आनंद विवाह अधिनियम के तहत आते हैं। लेकिन, उनमें तलाक के प्रावधानों का अभाव है। इसके कारण सिख तलाक हिंदू विवाह अधिनियम के तहत सेटेल होते हैं। प्रॉपर्टी, उत्‍तराधिकार और अन्‍य कई मामलों में भी अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग तरह के कानून हैं। इसे लागू करने में यही पेच है।


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